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09/03/2011

घर तो आखिर घर होता है/ घर के बिना कहां गुज़र होता है




हम ही ईश्वर हम ही पुजारी
हम ही राजा हम ही भिखारी
किसको पूजाएं किसको पजाएं
हम ही शिकार. हम ही शिकारी
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सिर्फ़ देह नहीं जीवन की धूरी है स्त्री
अधूरा सिर्फ़ पुरुष, पूरी है स्त्री
स्त्री के हृदय में रमते हैं देव
करुणा,प्रेम, समर्पण, मजबूरी है स्त्री
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खुद को कर आग के हवाले
हर चराग बांटता फ़िरता उजाले
पर नामुराद हवाएं कब समझेगी
उजालों को बचाते पड जाते हैं हाथों में छाले
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सब कुछ मिल जाता है जहां में
सिर्फ़ मुहब्बत को ही, मुहब्बत नहीं मिलती
हर फ़ूल लिए है खिलने, खुश्बू बिखेरने की चाह
पर बागवानों की रहमत और किस्मत नहीं मिलती
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घर तो आखिर घर होता है
घर के बिना कहां गुज़र होता है
लोग आते-जाते रहते हैं घरों से
घर ताज़िंदगी हम सफ़र होता है
नाप ले पंछी कितने भी आसमां
लौटता है वहीं, जहां घर होता है
बदकिस्मत वे जिनके घर नहीं होते
घर, घर नहीं परिवार का मंदिर होता है
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बेरंग भी एक रंग होता है
रंग को समझने का एक ढंग होता है
रंगों की भाषा रंगबाज़ ही समझे
क्यूंकि रंग तो आखिर रंग होता है
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यूं ही नहीं बहुत खास लिखे हैं
अल्फ़ाज़ नहीं दिल के अहसास लिखे हैं
जानते हैं तुम दूर हो हम से, बहुत दूर
फ़िर भी हमने अपने दिल के पास लिखे हैं
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03/03/2011


गलतफ़हमियों के शिकार हो गए
रिश्तों के बंद कई द्वार हो गए
गलतफ़हमियों के चपेट में आ
अच्छे भले लोग बीमार हो गए
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सच कहने, सुनने की हिम्मत ढूंढ रहा हूं
चेहरे चेहरे पर सच्ची चाहत ढूंढ रहा हूं
जानता हूं मुश्किल है पर असंभव नहीं
स्लम डाग के लिए मिलियनी हकीकत ढूंढ रहा हूं
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कुछ सवालों के उत्तर नहीं होते
कुछ रिश्ते बाहर के भीतर नहीं होते
उन कंगूरों का भरोसा क्या करें
नींव में जिनके पत्थर नहीं होते
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यार को यार का ना ऎतबार चाहिए
दो और लो, ना इंतज़ार चाहिए
बहुत हाईटेक प्यार है आज का
बात बात पर उपहार चाहिए
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बीडी जलाने से शुरु होकर बात
मुन्नी की बदनामी
और शीला की ज़वानी तक
आ पहुंची है
क्या कोई बता सकता है
हमारी सोच
कहां आ पहुंची है?
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खामोशियां जब ज़ुंबा खोलती है
हकीकतें कोने टटोलती है
एक के बाद एक खुलते जाते हैं पर्दे
जब आप उनके सामने और वो आपके सामने होती है
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कुछ रिश्तों को भरोसा दिलाना मुश्किल है
कितना भी करो, निभना-निभाना मुश्किल है
ज़िंदगी बीत जाती है यूं ही रोते झींकते
उनके संदेहों से पार पाना मुश्किल है

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