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28/04/2011

मसखरों के बीच कैसे, उदासी बांटी जाए


मां तो सिर्फ़ औलाद पैदा करती है
इंसान और सिर्फ़ इंसानियत पैदा करती है
दुनियां ही देती है उन्हें मजहबी तमगे और जातियां
दुनियां ही दिलों में नफ़रत पैदा करती है
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सारे गम सह गए होते, अगर आंसू बह गए होते
उन्होंने रोका, टोका न होता..क्या क्या कह गए होते
बहुत मुश्किल थे सवालात इश्किया परचे के
जवाब आते होते तो हम भी पास हो गए होते
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मसखरों के बीच कैसे, उदासी बांटी जाए
दादुरों के बीच कैसे खामोशी बांटी जाए..
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सुबकते बच्चे को थपकियां दे सुलाया मैंने
प्यारभरी लोरी गा गुमशुदा नींद को बुलाया मैंने
अपने मन उजियाले सपनों का दीया जला
कलमुहीं रात को खूब चिढाया मैंने
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हाथ बंधा दीजिए, बेजुबां कीजिए
हस्ती मिटा दीजिए, ज़मींदोज कीजिए
एक दिन तो सच का मुतमुइन है 
चाहे जितनी दीवारें चुना दीजिए
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बेबस और लाचार होता जा रहा है
आदमी औज़ार होता जा रहा है
रिश्तों की कडवाहट और खुदगर्जी से 
घर भी अपना बाज़ार होता जा रहा है
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उडनेवालों को ज़मीन पर आना ही पडता है
अनंत महाविराट के सामने आखिर सर झुकाना ही पडता है
हिमालय से शिखर के साथ सागर की अतल गहराई भी है
औकात को अपनी औकात में आना ही पडता है




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